स्नात्रिया शुद्धि होकर जल का कलश लेकर खड़ा होवे । पहले स्थापना करके नीचे लिखा आव्हान का श्लोक पढ़ें ।
।। श्लोक ।।
सकल गुण गरिष्ठान सत्तपो भिर्वरिष्ठान, शम दम यम युष्टां चारुचारित्र निष्ठान निखिल जगतपीठे दर्शितात्म प्रभावान, मुनिप कुशल सूरी स्थापयाम्यत्र पीठे ।
।। मंत्र ।।
ॐ ह्रीं श्रीं श्री जिनदत्त, श्री मणिधारी जिनचन्द्र, श्री जिनकुशल, श्री जिनचन्द्र सूरिः गुरौ, अत्रावतरावतर स्वाहाः ।।
ॐ ह्रीं श्रीं श्री जिनदत्त, श्री मणिधारी जिनचन्द्र, श्री जिनकुशल, श्री जिनचन्द्र सूरिः अत्रः तिष्ठः ठः ठः ठः स्वाहाः ।। इति प्रतिष्ठापनं ।।
ॐ ह्रीं श्रीं श्री जिनदत्त, श्री मणिधारी जिनचन्द्र, श्री जिनकुशल, श्री जिनचन्द्र सूरिः अत्र मम सन्निहितौ भव वषट ।। इति सन्निधिकरणं ।।
।। १. अथ न्हवण पूजा, जल पूजा ।।
।। दोहा ।।
( तर्ज़ - चांदी जैसा रंग है तेरा, चांद सी महबूबा हो )
ईश्वर जग चिंतामणि, कर परमेष्ठी ध्यान ।
गणधर पद गुण वर्णना, पूजन करो सुजान।।
सौधर्मा मुनिपति प्रगट वीर जिनेश्वर पाट ।
मिथ्या मत तम हरण को, भव्य दिखावन वाट।।
सुस्थित सुप्रतिबद्ध गुरु, सूरी मंत्र को जाप ।
कोटि कियो जब ध्यान धर, कोटिक गच्छ सुथाप।।
दश पूर्वी श्रुत केवली, भयो वज्रधर स्वाम ।
तां दिन तें गुरु गच्छ को, वज्रशाख भयो नाम।।
चंद्रसूरी भये चंद्र सम, अतिहि बुद्धि निधान ।
चंद्रकुली सब जगत में पसर्यो बहु विज्ञान ।।
वर्धमान के पाठ पद, सूरी जिनेश्वर भास ।
चैत्यवासि को जीतकर सुविहित पक्ष प्रकाश।।
अणहिलपुर पाटण सभा, लोक मिले तिहाँ लक्ष ।
खरतर विरुद्ध सुधा निधि, दुर्लभ राज समक्ष ।।
अभय देव सूरी भये, नव अंग टीकाकार ।
थंभण पारस प्रकट कर, कुष्ठ मिटावन हार ।।
श्री जिन वल्लभ सूरी गुरु, रचना शास्त्र अनेक ।
प्रतिबोधे श्रावक बहुत, ताके पट्ट विशेष।।
हुम्बड़ श्रावक वागड़ी, अट्ठारे हज्जार ।
जैन दया धर्मी किए, वरते जय जयकार ।।
दादा नाम विख्यात जस सूर नर सेवक जास ।
दत्तसूरि गुरु पूजतां, आनंद हर्ष उल्लास।।
दिल्ली में पतशाह ने, हुकुम उठाया शीश ।
मणिधारी जिनचंद्र गुरु, पूजो विश्वावीस ।।
ताके पट्ट परंपरा, श्री जिनकुशल सुरिन्द ।
अकबर को परचा दिया, दादा श्री जिनचन्द ।।
ऐसे दादा चार को पूजो चित्त लगाय ।
जल चंदन कुसुमादि कर, ध्वज सौगंध चढ़ाय ।।
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(श्री राग)
( तर्ज़ - अब सौंप दिया इस जीवन को )
गुरुराज तणी कर पूजन, भवि सुखकर मिलसी लच्छि घणी ।। टेर ।।
गुरुदत्त सुरिंद जग उपकारी, गुरु सेवक ने सानिधकारी ।
गुरु चरण कमल नी बलिहारी ।। १ ।।
संवत इग्यारे बार शशि , बत्तीसे जनम्या शुभ दिवसी ।
श्रावक कुल हुम्बड़ ने हुलसी ।। २ ।।
जसु बासगछा पितु नाम भणे, बाहड़दे माता हर्ष घणे ।
इकतालीसे दीक्षा पभणे ।। ३ ।।
गुण हतरे वल्लभ पाट धरी, गुरु माया बीज नो जाप करी ।
गुरु जग में प्रगट्या तरण तरी ।। ४ ।।
मणिधारी जिनचन्द्र उपकारी , जिनदत्त सुरिंद के पट्टधारी ।
भये दादा दूजा सुखकारी ।। ५ ।।
राशल पितु देल्हण दे माता , श्रीमाल गोत्र बोधन शाता ।
दिल्ली पति शाह सुगुण गाता ।। ६ ।।
जसु चौथे पाट उद्योत करी , जिन कुशल सुरिंद अति हर्ष भरी ।
तेरेसै तीसे जनम धरी ।। ७ ।।
जसु जिल्ला जनक जगत्र जियो , वर जैत श्री शुभ स्वप्न लियो ।
गुरु छाजेड़ गोत्र उद्धार कियो ।। ८ ।।
धन सैंतालीसे दीक्षा धरी , जिनचन्द्र सूरीश्वर पाटवरी ।
गुण हतरे सूरी मंत्र जाप करी ।। ९ ।।
सेवा में बावन वीर खड़ा , जोगनियाँ चौंसठ हुकुम धरा ।
गुरु जग में कई उपकार करा ।। १० ।।
माणक सूरीश्वर पद छाजे , जिनचन्द्र सूरी जग में गाजे ।
भये दादा चौथा सुख काजे ।। ११ ।।
जिन चाँद उगायो उजियालो , अम्मावस की पूनम वालो ।
सब श्रावक मिल पूजन चालो ।। १२ ।।
जिन अकबर को परचा दीना , काज़ी की टोपी वश कीना ।
बकरी का भेद कहा तीना ।। १३ ।।
गंधोदक सुरभि कलश भरी , प्रक्षालन सदगुरू चरण परी ।
या पूजन कवि ऋद्धिसार करी ।। १४ ।।
।। श्लोक ।।
सुर नदी जल निर्मल धारकैः , प्रबल दुष्कृत दाग नीवारकैः।
सकल मङ्गल वाँछित दायकौ , कुशलसूरी गुरुश्चरणौ यजैः ।।
।। मंत्र ।।
ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय, परम गुरुदेवाय, भगवते श्री जिन शासनोद्दीपकाय, श्री जिनदत्त सूरीश्वराए, मणिमंडित भालस्थल श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, श्री जिनकुशल सूरीश्वराए, अकबर असुरत्राण प्रतिबोधकाय, श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, जलं निर्विपामिते स्वाहाः।
।। २ . अथ केशर चंदन पूजा ।।
।। दोहा ।।
केसर चंदन मृगमदा, कर घनसार मिलाप ।
परचा जिनदत्त सूरी का, पूज्यां टूटे पाप ।।
( तर्ज़ - १. बीन बाजे की २. बहुत प्यार करते हैं ३. अच्छा सिला दिया तूने ४. जनम जनम का साथ )
दीन के दयाल राज, सार सार तूँ ।। टेर ।।
आए भरू अच्छ नग्र, धाम धूम धूँ ।
बाजते निशान ठौर हर्ष रंग हूँ ।। १ ।।
मुसलमान मुगलपूत, फौज मौज़ मूँ ।
फौत मौत हो गया, हाय कार सूँ ।। २ ।।
सघन विघ्न देख आप, हुक्म दीन यूँ ।
लाओ मेरे पास आस, जीवदान दूँ ।। ३ ।।
मृतक पूत मंत्र से, उठाय दीन तूँ ।
देख के अचंभ रंग, दास खास कूँ ।। ४ ।।
करत सेव भावपूर, तुरक राज जूँ ।
छोड़ के अभक्ष खाण, हाजरी भरुँ ।। ५ ।।
बीज खीज के पड़ी, प्रतिक्रमण के मूँ ।
हाथ से उठाय पात्र, ढाँक दीन छूँ ।। ६ ।।
दामनी अमोल बोल, सिद्ध राज तूँ ।
देऊँ वरदान छोड़ बंद कीन क्यूँ ।। ७ ।।
दत्त नाम जपत जाप, करत नाहीं चूँ ।
फेर मैं पडूँगी नाहीं छोड़ दीन फूँ ।। ८ ।।
करोगे निहाल आप पाँव पलक नूँ ।
राम ऋद्धिसार दास चरण छाँह लूँ ।। ९ ।।
।। श्लोक ।।
मलय चंदन केशर वारिणाः , निखिल जाह्यरु जाति पहारिणा ।
सकल मंगल वांछित दायकं , कुशलसूरी गुरौश्चरणौ यजै ।।
।। मंत्र ।।
ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय, परम गुरुदेवाय, भगवते श्री जिन शासनोद्दीपकाय, श्री जिनदत्त सूरीश्वराए, मणिमंडित भालस्थल श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, श्री जिनकुशल सूरीश्वराए, अकबर असुरत्राण प्रतिबोधकाय, श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, केशरं चन्दनं निर्विपामिते स्वाहाः ।।
।। ३. अथ पुष्प पूजा ।।
।। दोहा ।।
चंपा चमेली मालती मरुआ अरु मचकुंद ।
जो चाढ़े गुरु चरण पर, तिन घर होत आनंद ।।
( तर्ज़ - १. नींद तो गई रे बादला म्हारी २. नखरालो देवरियो ३. वृंदावन का कृष्ण कन्हैया )
गुरु परतिख सुरतरु रूप, सुगुरु सम दूजो तो नहीं ।
दूजो तो नहीं म्हारा चेतन, दूजो तो नहीं
गुरु परतिख सूरतरू रूप सुगुरु ने पूजो तो सही ।। टेर ।।
चित्तौड़ नगरी वज्र खम्भ, में विद्या पोथी रही ।
मंत्र यंत्र विद्या से पूरी, गुरु निज हाथ ग्रही ।। १ ।।
पूर्व उज्जयिनी महाकाल के, मंदिर थम्भ कही ।
सिद्धसेन दिनकर की पोथी, विद्या सर्व लही ।। २ ।।
उज्जयिनी व्याख्यान बीच में, श्राविका रूप ग्रही ।
जोगणियाँ छलने को आई, सबकूँ कील दई ।। ३ ।।
दीन होय जोगणियाँ चौसठ, गुरु की दास भई ।
सात दिया वरदान हरष से, पसर्या सुयश मही ।। ४ ।।
पुष्प माल गुरु गुण की गूँथी, चाढ़ो चित्त चही ।
कहे राम ऋद्धिसार सुयश की, बूंटी आप दई ।। ५ ।।
।। श्लोक ।।
कमल चम्पक केतकी पुष्पकै परिमलाहृत षटपद वृन्दकैः ।
सकल मंगल वांछित दायकं , कुशलसूरी गुरौश्चरणौ यजै ।।
।। मंत्र ।।
ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय, परम गुरुदेवाय, भगवते श्री जिन शासनोद्दीपकाय, श्री जिनदत्त सूरीश्वराए, मणिमंडित भालस्थल श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, श्री जिनकुशल सूरीश्वराए, अकबर असुरत्राण प्रतिबोधकाय, श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, पुष्पं निर्विपामिते स्वाहाः ।।
।। ४. अथ धूप पूजा ।।
।। दोहा ।।
धूप पूज कर सुगुरु की, पसरे परिमल पूर ।
यश सुगंध जग में बढ़े, चढ़े सवाया नूर ।।
( तर्ज़ - १. कुबजाने जादू डारा २. ओ साथी रे तेरे बिना भी ३. बाबुल प्यारे ४. तूने मुझे बुलाया शेरावालिए ५. छू लेने दो नाजुक ६. चांदी जैसा रंग है तेरा ७. ऐ मेरे वतन के लोगों )
अंबिका विरूद बखाने, गुरु तेरो अंबिका विरूद बखाने ।
तुम युग प्रधान नहीं छाने, गुरु तेरो ।। टेर ।।
गढ़ गिरनार पे अंबड़ श्रावक, ऐसो नियम चित्त ठाने ।
युग प्रधान इस युग में कोई, देखूं जन्म प्रमाने ।। १ ।।
कल उपवास तीन दिन बीते, प्रगटी अंबा ज्ञाने ।
प्रगट होय कर में लिख दीना, सुवरण अक्षर दाने ।। २ ।।
या गुण संयुत अक्षर बांचे, ताकूँ युगवर जाने ।
अंबड़ मुलक मुलक में फिरता, सूरी सकल पतियाने ।। ३ ।।
आया पास तुम्हारे सदगुरु, कर पसार दिख लाने ।
वासक्षेप कर ऊपर डाला, चेला बांच सुनाने ।। ४ ।।
सर्व देव हैं दास जिन्हों के मरुधर कल्प प्रमाने ।
युग प्रधान जिनदत्त सूरीश्वर, अंबड़ शीश झुकाने ।। ५ ।।
उद्योतन सूरी ने निज हाथे, चौरासी गच्छ ठाने ।
वह सब तुमरी सेवा सारें, आन तुम्हारी माने ।। ६ ।।
भद्रबाहु स्वामी तुम कीर्तन, कीनी ग्रंथ प्रमाने ।
युग प्रधान प्रकीर्ण गंडिका, गणधर पद वृत्ति माने ।। ७ ।।
जो जन तुमको भक्ति से पूजें, हो उनके मन मानें ।
कहे राम ऋद्धिसार गुरु की, पूजा धूप कराने ।। ८ ।।
।। श्लोक ।।
अगर चंदन धूप दशांगजैः, प्रसरिता खिली दिक्षु सुधूम्रकैः ।
सकल मंगल वांछित दायकं , कुशलसूरी गुरौश्चरणौ यजै ।।
।। मंत्र ।।
ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय, परम गुरुदेवाय, भगवते श्री जिन शासनोद्दीपकाय, श्री जिनदत्त सूरीश्वराए, मणिमंडित भालस्थल श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, श्री जिनकुशल सूरीश्वराए, अकबर असुरत्राण प्रतिबोधकाय, श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, धूपं निर्विपामिते स्वाहाः ।।
।। ५ . दीप पूजा ।।
।। दोहा ।।
दीप पूज कर सुगुण नर, नित नित मंगल होत ।
उजियालो जग में जुगत, रहे अखंडित जोत ।।
( श्री राग कोलिंगड़ )
( तर्ज़ - मैं तेरी दुश्मन, जिसने शासन चमकाया जिन राज का, मैं हूं छोरी मालन की, टहुका करतो जाये )
पूजन कीजोजी नर-नारी, गुरु महाराज का हो ।। टेर।।
सिंधु देश में पंच नदी पर, साधे पाँचों पीर।
लोई ऊपर पुरुष तिराये, ऐसे गुरु सधीर ।। १ ।।
प्रकट होय कर पाँच पीर ने, सात दिये वरदान।
सिंधु देश में खरतर श्रावक, होवेगा धनवान ।। २ ।।
सिंधु देश मुलतान नगर में, बड़ा महोत्सव देख।
अंबड़ और गच्छ का श्रावक, गुरु से कीना द्वेष ।। ३ ।।
अणहिलपुर पत्तन में आओ, तो मैं जानूँ सच्चा ।
धर्म ध्वजा फहराते आवें, देख लीजियो बच्चा ।। ४ ।।
पत्तन बीच पधारे दादा, डंका धर्म बजाया ।
निर्धन अंबड़ सन्मुख आया, अहंकार फल पाया ।। ५ ।।
मन में कपट किया अंबड़ ने, खरतर महिमा धारी।
ज़हर दिया उन अशन पान में, गुरु विधि जानी सारी ।। ६ ।।
भणशाली मुखबर श्रावक से, निर्विष मुद्री मंगाई।
ज़हर उतारा तब लोगों में, अंबड़ निंदा पाई ।। ७ ।।
मरकर व्यंतर हुआ वो अंबड़, रजोहरण हर लीना।
भणसाली व्यंतर वचनों से, गोत्र उतारा कीना ।। ८ ।।
सज्ज होय गुरु ओघा लेकर, गोत्र बचाया सारा।
ऋद्धिसार महिमा सतगुरु की, दीपक का उजियारा ।। ९ ।।
।। श्लोक ।।
अति सुदीप्त मयै खलु दीपकैः विमल कंचन भाजन संस्थितैः सकल मङ्गल वांछित दायकौ कुशलसूरी गुरुश्चरणौयजै ।
।। मंत्र ।।
ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय, परम गुरुदेवाय, भगवते श्री जिन शासनोद्दीपकाय, श्री जिनदत्त सूरीश्वराए, मणिमंडित भालस्थल श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, श्री जिनकुशल सूरीश्वराए, अकबर असुरत्राण प्रतिबोधकाय, श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, दीपं निर्विपामिते स्वाहाः ।
।। ६. अथ अक्षत पूजा ।।
।। दोहा ।।
अक्षत पूजा गुरु तणी , करो महाशय रङ्ग ।
क्षति न होवे अङ्ग में , पाओ सुख अभंग ।।
( तर्ज़ - १. जहाँ डाल डाल पर सोने की २. चला चला रे ३. बड़ी देर भई नंदलाला ४. इचक दाना बिचक दाना ५. चाँद सी मेहबूबा ६. माये नी माये मुँडेर पे तेरी )
रतन अमोलक पायो , सुगुरु सम रतन अमोलक पायो ।
गुरु संकट सब ही मिटायो ।। ।। टेर ।।
विक्रम पुर नगरी लोकन को , हैज़ा रोग सतायो ।
बहुत उपाय किया शांति का , ज़रा फरक नहीं आयो ।। १ ।।
योगी जंगम ब्रम्ह सन्यासी , देवी देव मनायो ।
फरक नहीं किन ही ने कीना , हाहा कार मचायो ।। २ ।।
रतन चिन्तामणि सारिखो साहिब , विक्रमपुर में आयो ।
जैन संघ का कष्ट दूर कर , जय जय कार करायो ।। ३ ।।
महिमा सुन माहेश्वर ब्राम्हण, सब ही शीश नमायो ।
जीवित दान करो महाराजा , गुरु तब यों फ़रमायो ।। ४ ।।
जो तुम समकित व्रत को धारो , अब ही कर दूँ उपायो ।
तहत वचन कर रोग मिटायो , आनन्द हर्ष बधायो ।। ५ ।।
जो कोई श्रावक व्रत को न धार्यो , पुत्री पुत्र चढ़ायो ।
साधु पाँच सौ दीक्षित कीना , साधवियाँ समुदायो ।। ६ ।।
मंत्र कला गुरु अतिशय धारी , ऐसो धर्म दिपायो ।
ऋध्दिसार पर किरपा कीनी , साचो पथ बतलायो ।। ७ ।।
।। श्लोक ।।
सरल तंदुल कैरति निर्मलैः , प्रवर मौक्तिक पुँज वदुज्वलैः ।
सकल मंगल वांछित दायकौ , कुशल सूरी गुरौ श्चरणौ यजै ।।
।। मंत्र ।।
ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय, परम गुरुदेवाय, भगवते श्री जिन शासनोद्दीपकाय, श्री जिनदत्त सूरीश्वराए, मणिमंडित भालस्थल श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, श्री जिनकुशल सूरीश्वराए, अकबर असुरत्राण प्रतिबोधकाय, श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, अक्षतं निर्विपामिते स्वाहाः ।।
।। ७. अथ नैवेद्य पूजा ।।
।। दोहा ।।
नैवेद्य पूजा सातमी, करो भविक चित चाव ।
गुरु गुण अगणित किम गिने गुरु भव तारण नाव ।।
( तर्ज़ - १. तेरी पूजा बनी रे रस में २. जल जाए जीवा पापनी ३. नजर के सामने ४. इन्हीं लोगों ने ५. मेरे दोनों हाथों में ६. झिलमिल सितारों का ७. रंगाई जाने रंग मां )
हो गुरु किया, असुर को वश में ।। टेर ।।
बड़ नगरी में आप पधारे, सामेला धस मस में ।
ब्राह्मण लोक करी पंचायत मिलकर आया सुस में ।। १ ।।
महिमा देख सके नहीं गुरु की, भर गये वह तो गुस में ।
मृतक गऊ जिन मंदिर आगे, रख दी सन्मुख चस में ।। २ ।।
श्रावक देख भये आकुलता, कहे गुरु से कस में ।
चिंता दूर करी है संघ की, गऊ उठ चाली डस में ।। ३ ।।
मरी गऊ को जीती कीनी, लोक रहे सब हंस में ।
जाके गाय पड़ी रुद्रालय , संघ भया सब खुश में ।। ४ ।।
ब्राम्हण पाँव पड़े अब गुरु के, देख तमाशा इसमें ।
हुक्म उठावेंगे सिर ऊपर, तुम संतति की दिश में ।। ५ ।।
नमस्कार है चमत्कार को, कीनी पूजा रस में ।
कहे राम ऋद्धिसार गुरु की, आनन्द मंगल यश में ।। ६ ।।
।। श्लोक ।।
बहुविधैश्चरु भिर्वट कैर्यकैः , प्रचर सर्पिसि पक्क सुखज्जकैः ।
सकल मंगल वांछित दायकं, कुशल सूरी गुरौ श्चरणौ यजै ।।
।। मंत्र ।।
ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय, परम गुरुदेवाय, भगवते श्री जिन शासनोद्दीपकाय, श्री जिनदत्त सूरीश्वराए, मणिमंडित भालस्थल श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, श्री जिनकुशल सूरीश्वराए, अकबर असुरत्राण प्रतिबोधकाय, श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, नैवेद्यं निर्विपामिते स्वाहाः ।।
।। ८. अथ फल पूजा ।।
।। दोहा ।।
फल पूजा से फल मिले, प्रगटे नवे निधान ।
चहुं दिश कीरत विस्तरे, पूजन करो सुजान ।।
( तर्ज़ - १. रथ चढ़ यदुनंदन आवत हैं २. बाबुल की दुआऐं लेती जा ३. रामचंद्र कह गए सिया से ४. आजा रे मेरे दिलबर आजा ५. चला चला रे ६. चांद सी मेहबूबा )
चालो संघ सब पूजन को, गुरु समर्या सन्मुख आवत हैं ।। टेर ।।
आनंदपुर पट्टन को राजा, गुरु महिमा सुन पावत हैं ।
भेजा निज परधान बुलाने, नृप अरदास सुनावत हैं ।। १ ।।
लाभ जान गुरु नगर पधारे, भूपत आय बधावत हैं ।
राजकुमर को कुष्ट मिटायो, अचरज तुरत दिखावत हैं ।। २ ।।
दस हज्जार कुटुंब संग नृप को, श्रावक धर्म धरावत हैं ।
प्रतापगढ़ को पमार राजा, पुर में गुरु पधरावत हैं ।। ३ ।।
दया मूल आज्ञा जिनवर की, बारह व्रत उचरावत हैं ।
चौहान भाटी पमार ईन्दा, पुन राठौड़ सुहावत हैं ।। ४ ।।
सिसोदिया सोलंकी नरवर, महाजन पदवी पावत हैं ।
ऐसे सात राज समकित धर, खरतर संघ बनावत हैं ।। ५ ।।
कुष्ट जलंधर क्षयन भगन्दर, कई एक लोक जिवावत हैं ।
ब्राम्हण क्षत्री अरु माहेश्वर, ओस वंश पसरावत हैं ।। ६ ।।
तीस हज़ार एक लख श्रावक, खरतर संघ रचावत हैं ।
कहत राम ऋद्धिसार गुरु की, फल पूजा फल पावत हैं ।। ७ ।।
।। श्लोक ।।
पनस मोच सदाफल कर्कटैः , सुसुख दैकिल श्रीफल चिर्मटैः ।
सकल मंगल वांछित दायकं, कुशल सूरी गुरौ श्चरणौ यजै ।।
।। मंत्र ।।
ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय, परम गुरुदेवाय, भगवते श्री जिन शासनोद्दीपकाय, श्री जिनदत्त सूरीश्वराए, मणिमंडित भालस्थल श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, श्री जिनकुशल सूरीश्वराए, अकबर असुरत्राण प्रतिबोधकाय, श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, फलं निर्विपामिते स्वाहाः ।।
।। ९. वस्त्र इत्र पूजा ।।
।। दोहा ।।
वस्त्र इतर गुरु पूजना, चोवा चन्दन चंपेल ।
दुश्मन सब सज्जन हुऐ, करें सुरंगा खेल ।।
( तर्ज़ - १. मनड़ो किमही न बाजे २. जनम जनम का साथ है ३. तेरा साथ है कितना प्यारा ४. गोविंदा आला रे ५. इचक दाना बिचक दाना ६. ज्योत से ज्योत जलाते चलो ७. तुम दिल की धड़कन )
लखमी लीला पावे रे सुन्दर, जे गुरु वस्त्र चढ़ावे रे सुन्दर ।
सुयश अतर महकावे रे सुन्दर, दुश्मन शीश नमावे रे सुन्दर ।। टेर ।।
दरिया बीच जहाज श्रावक की, डूबण खतरे आवे ।
साचे मन सुमरे सदगुरु को, दुःख की टेर सुनावे ।। १ ।।
वाचंतां व्याख्यान सूरीश्वर, पंखी रूपे थावे ।
जाय समुद्र में जहाज तिरायो, फ़िर पीछा जब आवे ।। २ ।।
पूछे संघ अचरज में भरिया, गुरु सब बात सुनावे ।
ऐसे दादा दत्त कुशल गुरु, परचा प्रगट दिखावे ।। ३ ।।
बोथर गूजरमल श्रावक को, दादा कुशल तिरावे ।
सुखसूरी गुरु समय सुन्दर का जहाज़ अलोप दिखावे ।। ४ ।।
बारह सौ इग्यारे दत्तसुरि, अजमेर अणसण ठावे ।
उपज्या सौधर्मा देवलोके, सीमंधर फरमावे ।। ५ ।।
इक अवतारी कारज सारी, मुक्ति नगर में जावे ।
ऐसे दादा दत्त सूरीश्वर, तारण तरण कहावे ।। ६ ।।
मणिधारी दिल्ली में पूज्यां, संकट सपने ना आवे ।
रथी उठी नहीं देख नरेश्वर, वांही चरण पधरावे ।। ७ ।।
कुशल सूरी देराउर नगरे, भुवनपति सुर थावे ।
फागुन बदी अम्मावस सीधा पूनम दरस दिखावे ।। ८ ।।
जल चंदन फल फूल मनोहर, आठों द्रव्य चढ़ावे ।
वस्त्र इतर पूजा सदगुरु की, ऋद्धिसार मन भावे ।। ९ ।।
।। श्लोक ।।
अखिल हीर शुचिः नव चीरकैः, प्रवर प्रावरणै खलु गंधकैः।
सकल मंगल वांछित दायकं, कुशल सूरी गुरौ श्चरणौ यजै ।।
।। मंत्र ।।
ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय, परम गुरुदेवाय, भगवते श्री जिन शासनोद्दीपकाय, श्री जिनदत्त सूरीश्वराए, मणिमंडित भालस्थल श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, श्री जिनकुशल सूरीश्वराए, अकबर असुरत्राण प्रतिबोधकाय, श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, वस्त्रं चोवा चन्दन पुष्पं फलं निर्विपामिते स्वाहाः ।।
।। १०. ध्वज पूजा ।।
।। दोहा ।।
ध्वज पूजा गुरु राज की, लहके पवन प्रचार ।
तीन लोक के शिखर पर सो पहुंचे नर नार ।।
( तर्ज़ - १. चाँदी की दीवार ना तोड़ी २. बहुत प्यार करते हैं ३. म्हारा प्रभुनी बधाई बाजे छे ४. चाँद सी मेहबूबा हो मेरी )
ध्वज पूजन कर हरष भरी रे ।। टेर ।।
सज सोलह श्रृंगार सहेलियां, श्री सतगुरु के द्वार खड़ी रे ।
अपछर रूप सुतन सुकुलीनी, ठम ठम पग झणकार करी रे ।। १ ।।
गावत मंगल देत प्रदक्षिणा, धन धन आनंद आज घड़ी रे ।
निर्धन को लक्ष्मी बखसावत, पुत्र बिना जाके पुत्र करी रे ।। २ ।।
जो जो परतिख परचा देखा, सुनो भविक चित चाव धरी रे।
फतहमल्ल भड़गतिया श्रावक, पहली शंका जोर करी रे ।। ३ ।।
देखूँ परतिख तब मैं जानूँ, प्रगट्या तत्क्षण तरण तरी रे।
पुष्पमाल सिर केसर टीका, अधर श्वेत पोशाक धरी रे ।। ४ ।।
मांग मांग वर बोले वाणी, फरक बताओ गुरु मेघ झरी रे ।
फरक उगायो दोय लाख पर, तेरी महिमा नित्य हरी रे ।। ५ ।।
ज्ञानचंद गोलेच्छा को गुरू, प्रत्यक्ष दीना दरस करी रे ।
बीकानेर में थुम्भ तुम्हारा, चित्र करावत सुर सुंदरी रे ।। ६ ।।
थानमल्ल लूणिया पर किरपा, लक्ष्मी लीला सहज वरी रे ।
लक्ष्मीपति दूगड़ की साहिब, हुंडी की भुगतान करी रे ।। ७ ।।
जो उपकार करा तुम मेरा, दीनी सन्मुख अमृत जड़ी रे ।
तेरी कृपा से सिद्धि पाई, जागे यश अरु भागे भरी रे ।। ८ ।।
भूखा भोजन तिसियाँ पानी, भरत हाजरी देवपरी रे ।
विषम समय पर सहाय हमारे, ऋद्धिसार की गरज सरी रे ।। ९ ।।
।। श्लोक ।।
मृदु मधुर ध्वनि किंकणी नादकैः , ध्वज विचित्रित विस्तृत वासकैः ।
सकल मंगल वांछित दायकं , कुशल सूरी गुरौश्चरणौ यजै ।।
।। मंत्र ।।
ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय, परम गुरुदेवाय, भगवते श्री जिन शासनोद्दीपकाय, श्री जिनदत्त सूरीश्वराए, मणिमंडित भालस्थल श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, श्री जिनकुशल सूरीश्वराए, अकबर असुरत्राण प्रतिबोधकाय, श्री जिनचंद्र सूरीश्वराए, शिखरो परि ध्वजां आरोपयामि स्वाहाः ।
।। ११. अथ अर्घ पूजा ।।
।। दोहा ।।
भट्टारक पदवी मिली, जीते वादी वृन्द ।
कंठ विराजे सरस्वती जग में श्री जिनचन्द ।।
( तर्ज़ - १. मेरा जूता है जापानी २. छू लेने दो नाजुक़ )
पूजन जग सुखकारी, सुगुरु तेरी पूजन जग सुखकारी ।
तेरे चरण कमल बलिहारी सुगुरु ।। टेर ।।
शाह सलेम दिल्ली को बादशाह, सुनी है शोभा तिहारी ।
भट्ट हरायो चर्चा करके, भट्टारक पदधारी ।। १ ।।
अमावस की पूनम कीनी, चाँद उगायो भारी ।
चढ़ के गगन करी है चर्चा, सूरज से तपधारी ।। २ ।।
उगणीसौ चौदह संवत में लखनऊ नगर मझारी ।
गोरा फिरंगी टोपी वाला, दिल में ये बात विचारी ।। ३ ।।
जैन श्वेतांबर देव जो सच्चा, पूरे मनसा हमारी ।
वाणी निकली सौ वर्षों तक होवेगा अधिकारी ।। ४ ।।
अंधे की खोली आँख सूरत में, पूजे सब नर नारी ।
कहां लग गुण वरणूं मैं तेरा, तू सूरतरु जयकारी ।। ५ ।।
उगणीसौ संवत्सर त्रेपन, मगसिर मास मझारी ।
शुक्ल दूज जिन चन्द सूरीश्वर, खरतर गच्छ आचारी ।। ६ ।।
कुशल सूरी के निज संतानी, क्षेमकीर्ति मनु हारी ।
प्रतिबोध्या जिन क्षत्री पाँच सौ, जान सहित अणगारी ।। ७ ।।
क्षेमधाड़ शाखा जब प्रगटी, जग में आनंद कारी ।
धर्म शील साधु गुण पूरे, कुशल निधान उदारी ।। ८ ।।
ये पूजां करतां सुख आनन्द, अन्न धन लक्ष्मी सारी ।
कहत राम ऋद्धिसार गुरु की, जय जय शब्द उचारी ।। ९ ।।